(त्याग का विषय)
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ ॥1॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं ॥2॥
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ॥3॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ॥4॥ अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं ॥5॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥
भावार्थ : इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ॥6॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ॥7॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
भावार्थ : जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ॥8॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ॥9॥
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ॥10॥
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ॥11॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
भावार्थ : कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ॥12॥ (अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग)
[…] शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्। लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै- र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।। भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता पाठ अर्जुनविषादयोग- पहला अध्याय सांख्ययोग-नामक दूसरा अध्याय कर्मयोग- तीसरा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग- चौथा अध्याय कर्मसंन्यासयोग- पाँचवाँ अध्याय आत्मसंयमयोग- छठा अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग- सातवाँ अध्याय अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय विभूतियोग- दसवाँ अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग- ग्यारहवाँ अध्याय भक्तियोग- बारहवाँ अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग- तेरहवाँ अध्याय गुणत्रयविभागयोग- चौदहवाँ अध्याय पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय […]
[…] शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्। लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै- र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो- यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।। भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता पाठ अर्जुनविषादयोग- पहला अध्याय सांख्ययोग-नामक दूसरा अध्याय कर्मयोग- तीसरा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग- चौथा अध्याय कर्मसंन्यासयोग- पाँचवाँ अध्याय आत्मसंयमयोग- छठा अध्याय ज्ञानविज्ञानयोग- सातवाँ अध्याय अक्षरब्रह्मयोग- आठवाँ अध्याय राजविद्याराजगुह्ययोग- नौवाँ अध्याय विभूतियोग- दसवाँ अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग- ग्यारहवाँ अध्याय भक्तियोग- बारहवाँ अध्याय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग- तेरहवाँ अध्याय गुणत्रयविभागयोग- चौदहवाँ अध्याय पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय […]