Friday, April 19, 2024
Homeधार्मिक कहानियाँहनुमान्‌जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा

हनुमान्‌जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा

हनुमान्‌जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा

चौपाई :
* पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
भावार्थ:-फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥
* तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
भावार्थ:-तब हनुमान्‌जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान्‌जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥
* दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥
भावार्थ:-हनुमान्‌जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥
* सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥
भावार्थ:-(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥
छंद- :
* अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥
भावार्थ:-श्री जानकीजी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्‌! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत्‌ का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।
दोहा :
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥
भावार्थ:-(जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥
चौपाई :
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥
भावार्थ:-हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी के पास जाकर हनुमान्‌जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥
* सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥
भावार्थ:-सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान्‌ के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥
* तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥
भावार्थ:-वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥
* बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥
भावार्थ:-बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं॥4॥
बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥
भावार्थ:-चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥5॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥
भावार्थ:-श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥
* सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥7॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥

Overview

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दोहा :
* तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥
भावार्थ:-इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥
चौपाई :
* प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥

सफलता (success) की राह

भावार्थ:-प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो॥1॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥2॥
भावार्थ:-श्री सीताजी की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भर आया। वे हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते॥2॥
देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री रामजी का रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ॥3॥
* जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥4॥
भावार्थ:-(सीताजी ने लीला से कहा-) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर को छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएँ॥4॥
छंद- :
* श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥
भावार्थ:-प्रभु श्री रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीताजी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं॥1॥
* धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥
भावार्थ:-तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत्‌ में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान्‌ को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥2॥
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Then God called Hanumanji. God said – you go to Lanka. Tell all the news to Janaki and bring her efficient news to you.
Then Hanumanji came to the city. Hearing this, demons and demons (for their hospitality) ran. He worshiped Hanumanji in many ways and then showed Shree Jankiji.
Hanumanji bowed (to Sitaji) from a distance. Janaki ji recognized that he is the messenger of Shri Raghunathji (and asked-) O Tat! Say, my Lord of grace is well skilled with my younger brother and army of apes.
(Hanumanji said-) O mother! Kosalpati Shri Ramji is very well in all respects. He has won the ten-headed Ravana in the battle and Vibhishana attained the immovable state. Hearing the words of Hanumanji, there was joy in Sitaji’s heart.
There was immense happiness in the heart of Shri Jankiji. His body pulsed and the eyes (of Anandashru) were flooded. She says again and again – O Hanuman! What should i give you There is nothing else in the three worlds similar to this Vani (news)! (Hanumanji said-) O mother! Listen, today I have undoubtedly attained the kingdom of the whole world, which I am watching over the enemy, Sri Ramji, by winning the enemy in battle.
(Jankiji said-) O son! Listen, all virtues should be in your heart and O Hanuman! Kosalpati Prabhu along with the rest (Laxmanji) may always be pleased with you.
Hey Tat Now you take the same measures, so that I can see the soft black body of the Lord with these eyes. Then Hanumanji went to Shri Ramchandraji and told him the efficient news of Janaki ji.
Surya Kulbhushan Shri Ramji heard the message and called Yuvraj Angad and Vibhishan (and said-) Go with Pawanaputra Hanuman and bring Janaki with respect.
They all immediately went to where Sita was. All the demons were humbly serving him. Vibhishanji soon explained them. He gave Sitaji a bath in many ways.
He wore many types of jewelry and then he brought a beautiful palanquin. Sita ji was pleased and remembered Shri Ramji, the abode of happiness, and climbed it with joy.
The guards walked around with sticks in their hands. There is supreme joy (umang) in everyone’s mind. Badgers and monkeys came to see everyone, then the guards ran in anger to stop them.
Mr. Raghuveer said- O friend! Follow me and bring Sita on foot, so that the monkey looks at her like a mother. Gosain Shri Ramji laughed and said so.
The bear monkeys were delighted after hearing the word of the Lord. Gods showered many flowers from the sky. Sitaji (the true form of) was first kept in the fire. Now the God of the inner Witnesses wants to reveal them.
For this reason, Shri Ramji, the storehouse of compassion, said some strong words to Leela, after hearing all the demons started to feel sad.
After giving head to the words of the Lord, with the mind, words, and deeds, holy Sita said – O Lakshman! You should be the Negi (Helper in righteousness) of my religion and immediately prepare the fire.
Listening to the voice of Shri Sitaji against his conscience, conscience, religion, and policy, water-filled the eyes (of tears of grief) in Laxmanji’s eyes. They stood with folded hands. They too cannot say anything to God.
After seeing the attitude of Shri Ramji, Lakshmanji ran and prepared a fire and brought a lot of wood. Janji was heartened to see Agni greatly increased. Nothing scared them.
(Sitaji said to Leela-) If there is no other motion (shelter of any other) in my heart, except Sri Raghuveer, my mind, word, and deed, then Agnidev who knows the speed of everyone’s mind (knowing the speed of my mind too) ) Let me be as cold as sandalwood.
By remembering Lord Shree Ramji and whose feet are worshiped by Mahadevji and those who have a very pure love of Sitaji, Jankaji ji entered the cool fire like sandalwood by uttering the glory of Kosalapati. Pratibimba (Sitaji’s shadow) and his temporal stigma were burnt in the fiery fire. No one knows these characters of God. Gods, Siddhas, and sages all stand in the sky.
Then Agni, holding the body, holding the hand of the famous real Sri (Sita JI) in the Vedas and in the world, dedicated her to Sri Ramji in the same way that Kshirsagar had dedicated Lakshmi to Lord Vishnu. She was seated in the left part of Sitaji Shri Ramchandraji. His exquisite beauty is very beautiful. As if the gold lotus bud will be adorned with the newly blossomed blue lotus.
parmender yadav
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I am simple and honest person
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