समुद्र के इस पार आना, सबका लौटना, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान् संवाद
चौपाई :
* चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥
भावार्थ:-चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे। समुद्र लाँघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया॥1॥
* हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥2॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥2॥
भावार्थ:-हनुमान्जी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा। हनुमान्जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, (जिससे उन्होंने समझ लिया कि) ये श्री रामचंद्रजी का कार्य कर आए हैं॥2॥
* मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥
भावार्थ:-सब हनुमान्जी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो। सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास (वृत्तांत) पूछते- कहते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥3॥
* तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥
भावार्थ:-तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाए। जब रखवाले बरजने लगे, तब घूँसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे॥4॥
दोहा :
* जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥28॥
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥28॥
भावार्थ:-उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं। यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं॥28॥
चौपाई :
* जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥
भावार्थ:-यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर आ गए॥1॥
* आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥2॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥2॥
भावार्थ:-(सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया। कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले। उन्होंने कुशल पूछी, (तब वानरों ने उत्तर दिया-) आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है। श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ (कार्य में विशेष सफलता हुई है)॥2॥
* नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥3॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए। यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमान्जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले॥3॥
* राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ। दोनों भाई स्फटिक शिला पर बैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े॥4॥
दोहा :
* प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥29॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥29॥
भावार्थ:-दया की राशि श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी। (वानरों ने कहा-) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है॥29॥
चौपाई :
* जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
भावार्थ:-जाम्बवान् ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं॥1॥
* सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥
भावार्थ:-वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है। प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया॥2॥
* नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवान् ने हनुमान्जी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी को सुनाए॥3॥
* सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥
भावार्थ:-(वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान्जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥4॥
दोहा :
* नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥
भावार्थ:-(हनुमान्जी ने कहा-) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥
चौपाई :
* चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥
भावार्थ:-चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्जी ने फिर कहा-) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-॥1॥
* अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥
भावार्थ:-छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूँ। फिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?॥2॥
* अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥
भावार्थ:-(हाँ) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं॥3॥
* बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥4॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥4॥
भावार्थ:-विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर (सुखी होने के लिए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती॥4॥
* सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥5॥
भावार्थ:-सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥5॥
दोहा :
* निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥31॥
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥31॥
भावार्थ:-हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है। अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए॥31॥
चौपाई :
* सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥
भावार्थ:-सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?॥1॥
* कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
भावार्थ:-हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे॥2॥
* सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3॥
भावार्थ:-(भगवान् कहने लगे-) हे हनुमान्! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥3॥
* सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥
भावार्थ:-हे पुत्र! सुन, मैंने मन में (खूब) विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओं के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमान्जी को देख रहे हैं। नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है॥4॥
दोहा :
* सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥32॥
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥32॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंगों को देखकर हनुमान्जी हर्षित हो गए और प्रेम में विकल होकर ‘हे भगवन्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े॥32॥
चौपाई :
* बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥
भावार्थ:-प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान्जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए॥1॥
* सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥
भावार्थ:-फिर मन को सावधान करके शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे- हनुमान्जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया॥2॥
* कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥
भावार्थ:-हे हनुमान्! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमान्जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले- ॥3॥
* साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥
भावार्थ:-बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला,॥4॥
* सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥
भावार्थ:-यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥5॥
दोहा :
* ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥33॥
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥33॥
भावार्थ:-हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है)॥3॥
चौपाई :
* नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥
भावार्थ:-हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा॥1॥
* उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥
भावार्थ:-हे उमा! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती। यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया॥2॥
* सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे- कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो! तब श्री रघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा- चलने की तैयारी करो॥3॥
*अब बिलंबु केह कारन कीजे। तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥
भावार्थ:-अब विलंब किस कारण किया जाए। वानरों को तुरंत आज्ञा दो। (भगवान् की) यह लीला (रावणवध की तैयारी) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले॥4॥
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Reaching across the ocean, returning everyone, Madhuvan entry, Sugriva Milan, Shri Ram-Hanuman dialogue
While walking, they roared heavily from the aorta, after hearing that the women of the demons began to miscarry. After crossing the sea, he came across this and he told the word Kilkila (Harshadhwani) to the apes.
On seeing Hanumanji, everyone was delighted and then the apes understood their new birth. Hanumanji has a happy face and is shining brightly in the body, (from which he understood that) he has done the work of Shri Ramchandraji.
Everyone met Hanumanji and was very happy, as if the tortured fish had got water. Everyone cheered and asked new history (chronicles) – saying, go to Shri Raghunathji.
Then everyone came inside Madhuvan and with Angad’s consent they all ate sweet fruits (or honey and fruits). When the keepers started to rain, then all the keepers left as soon as the punch hit.
They all called and said that the Crown Prince Angad is desolating the forest. Sugriva was delighted to hear that the monkey had done the work of God.
If Sita had not received the news, could he have eaten the fruits of Madhuvan? In this way, King Sugriva was thinking in his mind that monkeys including society came.
(Everyone came and bowed at Sugriva’s feet. Kapiraj Sugriva met everyone with great love. He asked Kushal, (then the monkeys replied-) All is well with the vision of your feet. By the grace of Shri Ramji, special work was done ( Special success has been made in the work)
Hey Nath! Hanuman did all the work and saved the life of all the monkeys. Hearing this, Sugrivaji met Hanumanji again and went to Shri Raghunathji along with all the monkeys.
When Shri Ramji saw the monkeys coming to work, he was particularly happy. Both brothers were seated on the crystal rock. All the apes went and fell at his feet.
The amount of mercy Shri Raghunathji embraced with the most love and asked him skillfully. (The apes said-) O Nath! Your Charan Kamal is proficient now by getting darshan. ॥
Jambwan said- O Raghunathji! Listen. Hey Nath! The one you have mercy on is always well-being and constantly efficient. Gods, humans and sages all take pleasure in him.
He is victorious, he is victorious and he becomes a sea of virtues. His beautiful fame is published in the three worlds. All work was done by the grace of God. Today our birth is successful.
Hey Nath! What Pawanaputra Hanuman did, cannot be described even with a thousand faces. Then Jambavan narrated the beautiful character (work) of Hanumanji to Shri Raghunathji.
On hearing (those characters) Kripanidhi felt very good on Shri Ramchandji’s mind. He rejoiced and engaged Hanumanji with his heart and said – O Tat! Say, how does Sita live and protect her life?
(Hanumanji said-) Your name is going to be guarded day and night, your attention is Kinwar. Keep the eyes on your feet, this is locked, then if you go to death, which way?
While walking, he gave me Chudamani. Shri Raghunathji took it with heart. (Hanumanji again said-) O Nath! Filled water in both eyes, Janaki ji said some words to me.
Holding the feet of the Lord with the younger brother (and saying that) you are the Deenbandhu, the one to defeat the afflictions of refuge and I am a follower of your feet by mind, word and deed. Then what crime did Swami (you) abandon me?
(Yes) I have a defect (I must admit) that my life did not go away after your separation, but O Nath! It is a crime of the eyes that obstinately obstructs the life.
Viraha is fire, body is cotton and breathing is wind, thus (due to the combination of fire and wind) this body can burn in a moment, but the eye seeing the nature of God for its own sake (to be happy) water (tears) ), It rains, so that the body does not get burnt even by the fire of violence.
Sitaji’s calamity is very big. Hey Deendayalu! She is good without being told (you will suffer a great tribulation).
Hey Karunanidhan! Every single moment of theirs passes like a cycle. Therefore, Lord! Walk immediately and with the help of your arms, win the team of the wicked and bring Sitaji.
Hearing the grief of Sitaji, the flood of happiness filled the lotus eyes of the Lord (and he said-) With the mind, words and body, which is my only movement (my only shelter), can it even be a disaster in a dream?
Hanumanji said- Lord! The calamity is the same (only) when your hymns are not remembered. Oh, Lord! How much is the matter of demons? You will conquer the enemy and take Janaki ji.
Hey son Listen, I have thought (very) in my mind and saw that I cannot be borrowed from you. Prabhu, the protector of the gods, is repeatedly looking at Hanumanji. The eyes are full of premature water and the body is very pulsed.
Hearing the words of the Lord and seeing his (pleased) face and (pulkit) limbs, Hanumanji was delighted and shivering in love, ‘O Lord! Saying, protect me, fall at the feet of Shri Ramji.
God wants to raise them again and again, but Hanumanji, immersed in love, does not like to rise from the feet. Lord’s work is on Hanumanji’s head. Shiva was in love after remembering that situation.
Then after careful mind, Shankarji started telling a very beautiful story – After lifting Hanumanji, the Lord planted it with his heart and seated it very close, holding hands.
Hey Hanuman! Tell me, how did you burn Lanka and its large banked fort secured by Ravana? Hanumanji was pleased with the Lord and he uttered a haughty promise.
The only effort of the monkey is that it moves from one branch to another. The sea which I crossed, lit the city of gold, and killed the demons, and destroyed the Ashoka forest.
This is all Mr. Raghunathji! He is your majesty. Hey Nath! There is nothing in me (my praise).
Oh God! Nothing is hard for you to be happy with. With your influence, cotton (which itself is a very quick burning item) can definitely burn Barwanal (ie, impossible can be possible).
Hey Nath! Please give me your undivided devotion, which gives me immense happiness. Hearing the very simple voice of Hanumanji, O Bhavani! Then Lord Sri Ramachandraji said ‘Evamastu’ (so be it).
Hey uma Who knows the nature of Shri Ramji, there is no other thing except the hymn. This Swami-Servant’s dialogue got into his heart, he got devotion at the feet of Shri Raghunathji.
Hearing the words of the Lord, the monkeys started saying – Please be kind to Shri Ramji, Jai Ho, Jai Ho! Then Mr. Raghunathji called Kapiraj Sugriva and said – Prepare to walk.
Now what should be the delay. Command the apes immediately. Seeing this Leela (preparation of Ravanavadh) (God), the Gods went to their respective loks by showering many flowers and rejoicing.
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