Sanskrit Shlok On Life:- प्राचीन काल में भारतवर्ष में बोली जाने वाली भाषा संस्कृत है जिसमें अनगिनत श्लोक है जिन का अध्ययन करके व्यक्ति अपने चरित्र को और भी बलवान बना सकता है और जीवन यापन बेहतर बनाने में उसकी यह संस्कृत श्लोक मदद कर सकते हैं। हमने आमतौर पर अपने स्कूल में संस्कृत तो पड़ी है पर उन श्लोक का जीवन में मतलब आज भी पढ़े तो समझ आता है!
कि यह भाषा कितनी गहराई से बनाई गई है जिसका अगर कोई भी श्लोक पढ़ा जाए तो जीवन को बेहतर बनाने वाला ही होता है अगर यह भाषा हम अपने दैनिक जीवन में थोड़ा थोड़ा सीखने का प्रयास करें तो हमारा जीवन काफी सरल बन जाएगा क्योंकि माना जाता है कि संस्कृत भाषा से बुद्धि का भी प्रबंध विकास होता है।
Sanskrit Shlok On Life
Sanskrit shlokas on life are profound and have been passed down through generations, carrying timeless wisdom and guidance. These shlokas encapsulate the essence of life’s journey and offer insights into living a purposeful and fulfilling existence. They emphasize the importance of self-awareness, mindfulness, and embracing the impermanence of life. The beauty of Sanskrit shlokas lies in their ability to convey deep philosophical concepts in a concise and poetic manner.
आज हम यहां आपके सामने कुछ संस्कृत श्लोक(Sanskrit Shlok) उनके हिंदी अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं और आशा यही रहेगी कि आपके जीवन में इंच लोग की मदद से कुछ बदलाव आए एवं यह जीवन पहले से सरल व शांति दायक बने। अगर आपको कुछ लोग पसंद आए या सभी श्लोक में जिंदगी का सार दिखे तो कृपया इस आर्टिकल को शेयर कीजिए और दी हुई सीखो को अपने जीवन में लाने की कोशिश कीजिए।
Sanskrit Shlok On Life Overview
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Sanskrit Shlok On Life With Hindi Meaning
1. जीवितं क्षणविनाशिशाश्वतं किमपि नात्र।
अर्थ: यह क्षणभुंगर जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है।
2. अविश्रामं वहेत् भारं शीतोष्णं च न विन्दति ।
ससन्तोष स्तथा नित्यं त्रीणि शिक्षेत गर्दभात् ॥
अर्थ : विश्राम लिए बिना भार वहन करना, ताप-ठंड ना देखना, सदा संतोष रखना यह तीन चीजें हमें गधे से सीखनी चाहिए।
3. मनःशौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत ।
देहशौचं च वाक्शौचं शौचं पंञ्चविधं स्मृतम्।
अर्थ: मन शौच, कर्म शौच, देश शौच और वाणी शौच यह पांच प्रकार के शौच हैं।
4. जीविताशा बलवती धनाशा दुर्बला मम्।।
अर्थ: मेरी जीवन की आशा बलवती है पर धन की आशा दुर्लभ है।
5. जीवचक्रं भ्रमत्येवं मा धैर्यात्प्रच्युतो भव।
अर्थ: जीवन का चक्र ऐसे ही चलता है इसीलिए धैर्य ना खोए।
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6. नो चेज्जातस्य वैफल्यं कास्य हानिरितिः परा।
अर्थ: जीवन की विफलता से बढ़कर क्या हानि होगी।
7. न दाक्षिण्यं न सौशील्यं न कीर्तिःनसेवा नो दया किं जीवनं ते।
अर्थ: ना दान है ना सुशीलता है ना कीर्ति है ना सेवा है ना दया है तो ऐसा जीवन क्या है?
8. यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः !
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता !!
अर्थ: साधु जन वही बोलते हैं जो उनके चित्र में होता है और जो उनके चित्र में होता है वही उनकी क्रिया में होता है। ऐसे साधु जन के मन वचन एवं क्रिया में समानता होती है।
9. यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसियस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।
अर्थ: वह व्यक्ति जो भिन्न-भिन्न देशों में भ्रमण करता है एवं विद्वानों की सेवा करता है ऐसे व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती है जैसे तेल की बूंद पानी में फैल जाती है।
10. शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः !वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा !!
अर्थ: 100 लोगों में एक शूरवीर होता है, हजार लोगों में एक पंडित(विद्वान) होता है, 10000 लोगों में वक्ता होता है, लाख लोगों में एक दानी होता है।
11. न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि !व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
अर्थ: जिसे ना चोर चुरा सकता है, ना ही राजा छीन सकता है, ना ही इसे संभालना मुश्किल है, नाही भाइयों में बंटवारा हो सकता है, यह खर्च करने से भरने वाला धन विद्या है जो सर्वश्रेष्ठ है।
12. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!
अर्थ : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है और मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परीक्षण करने वाला कभी दुखी नहीं हो सकता।
13. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् !वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ: विवेक में ना रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है इसलिए बिना सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है मां लक्ष्मी स्वयं उसका चुनाव करती है।
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14. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
अर्थ: मन ही मनुष्य के मोक्ष तथा बंधन का कारण है।
15. संतोषवत् न किमपि सुखम् अस्ति ॥
अर्थ: संतोष के समान कोई सुख नहीं है।
16. दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
अर्थ: दरिद्र रोग दुख बंधन और बताएं यह आत्मा रूपी वृक्ष के अपराध का फल है जिसका उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है।
17. निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।विषं भवतु वा माऽभूत् फणटोपो भयङ्करः।
अर्थ: सांप जहरीला ना होने पर भी फन जरूर उठाता है, अगर वह ऐसा भी ना करें तो लोग उसकी रीड को जूतों से कुचल कर तोड़ देंगे।
18. अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!
अर्थ: किसी स्थान पर बिन बुलाए चले जाना, बिना पूछे बोलते रहना, किसी व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना मूर्ख लोगों के लक्षण हैं।
19. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता !निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता !!
अर्थ: व्यक्ति के बर्बाद होने के छह लक्षण है- नींद, तद्रा, क्रोध, आलस्य एवं काम को टालने की आदत।
20. विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन !स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते !!
अर्थ: राजा और विद्वान में कभी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा अपने राज्य में पूजा जाता है वही विद्वान जहां जाता है वहां पूजनीय है।
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21. जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं !मानोन्नतिं दिशति पापमपा करोति !!
अर्थ: बुद्धि की जटिलता को हरने वाला अच्छे दोस्तों का साथ है। बोली सच बोलने लगती है, महान और उन्नति पड़ती है तथा पाप मिट जाता है।
22. उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः।न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थ: परिश्रम से कार्य सिद्ध होते हैं केवल मनोरथ से नहीं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं ही प्रवेश नहीं करता, उसे अपना शिकार स्वयं ही करना पड़ता है।
23. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
अर्थ: प्रिय वचन बोलने से सब जन संतुष्ट होते हैं इसलिए प्रिय वचन ही बोले। प्रिया वचन बोलने से कहां दरिद्रता आती अर्थात प्रवचन बोलने से कहीं नहीं मिलता नहीं आती तो प्रिया वचन बोले।
24. काकचेष्टो बकध्यानी श्वाननिद्रस्तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्चलक्षणः॥
अर्थ: कोई जैसी चेष्टा अगले जैसा ध्यान कुत्ते जैसी निंद्रा तथा कम खाने वाला और ग्रह का त्याग करने वाला यही विद्यार्थी के पांच लक्षण है।
25. सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गतिम्।सद्भिर्विवादं मैत्री च नासद्भिः किञ्चिदाचरेत्॥
अर्थ: सज्जनों के साथ बैठना, सज्जनों के साथ ही संगति करनी चाहिए। सज्जनों के साथ ही विवाद एवं मित्रता करनी चाहिए सज्जनों के साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिए।
Conclusion
In conclusion, the Sanskrit shlok on life encapsulates timeless wisdom and offers guidance for living a fulfilling and meaningful existence. Its teachings remind us of the impermanence of life and the importance of embracing change with equanimity. By practicing detachment from material possessions and cultivating inner peace, we can navigate the ups and downs of life with grace and resilience. The shlok emphasizes the significance of self-reflection, self-discipline, and selflessness in attaining true happiness and spiritual enlightenment. It serves as a profound reminder to live in harmony with nature, cultivate compassion towards all beings, and seek knowledge to attain self-realization. With its profound insights into the human experience, this Sanskrit shlok continues to inspire individuals across generations to lead a purposeful and virtuous life.
Sanskrit Shlok On Life FAQ’S
संस्कृत के श्लोक क्या हैं?
श्लोक, (संस्कृत: 'ध्वनि,' 'प्रशंसा का गीत,' 'स्तुति,' या 'छंद') संस्कृत महाकाव्यों का मुख्य पद्य रूप । एक द्रव मीटर जो खुद को सुधार के लिए अच्छी तरह से उधार देता है, श्लोक में 16 अक्षरों की दो पद्य पंक्तियाँ (एक डिस्टिच) या 8 अक्षरों की चार आधी पंक्तियाँ (हेमिस्टिच) होती हैं।
संस्कृत का प्रथम श्लोक कौन सा है?
वाल्मीकि के क्रोध और दुःख से निकला हुआ यह संस्कृत का पहला श्लोक माना गया। इसके बाद वाल्मीकि ने भगवान ब्रह्मा के आशीर्वाद से संपूर्ण रामायण की रचना उसी छंद से की, जो श्लोक के रूप में उनके द्वारा जारी किया गया था।
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