गौमाता सदा ही पूजनीय है । जानिए विस्तार पूर्वक ।

गौमाता  परिचय

गौमाता परिचय -धार्मिक ग्रंथों में लिखा है “गावो विश्वस्य मातर:” अर्थात गाय विश्व की माता है। मां शब्द की उत्पत्ति गौमाता के मुख से हुई है। मानव समाज में भी मां शब्द कहना गाय से सीखा है। जब गौ वत्स, रंभाता है तो मां शब्द गुंजायमान होता है। प्राचीन ग्रंथों में सुरभि (इंद्र के पास), कामधेनु (समुद्र मंथन के 14 रत्नों में एक), पदमा, कपिला आदि गायों का महत्व बताया है।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देवजी ने असि, मसि व कृषि गौ वंश को साथ लेकर मनुष्य को सिखाए। गाय का दूध एक ऐसा भोजन है, जिसमें प्रोटीन कार्बोहाइड्रेड, दुग्ध, शर्करा, खनिज लवण वसा आदि मनुष्य शरीर के पोषक तत्व भरपूर पाए जाते है। हमारा पूरा जीवन (gau mata) गाय माता पर आधारित है

गौ माता

गौमाता का महत्त्व-

क्योंकि जिस प्रकार पीपल का वृक्ष एवं तुलसी का पौधा आक्सीजन छोड़ते है। कुछ इसी प्रकार एक छोटा चम्मच देसी गाय का घी जलते हुए कंडे पर डाला जाए तो एक टन ऑक्सीजन बनती है। इसलिए हमारे यहां यज्ञ हवन अग्नि -होम में गाय का ही घी उपयोग में लिया जाता है। प्रदूषण को दूर करने का इससे अच्छा और कोई साधन नहीं है। गौ-माता (gau mata) के महत्त्व पर संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है –

गौमाता

गौमाता के लिए रोचक विश्वास एवं मान्यताएँ

  • गौमाता के लिए विश्वास एवं मान्यताएँ- कहते हैं कि, जो (gau mata) गौमाता के खुर से उड़ी हुई धूलि को सिर पर धारण करता है, वह मानों तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है। दूध तो बकरी, भेड़, ऊंटनी, भैंस का दूध भी काफी महत्व रखता है। किंतु केवल पञ्चामृत में गाय का दूध, घी ,गौमूत्र ,दही  ही सर्वोत्तम माना जाता है। तथा गंगा जल की तरह पवित्र भी माना जाता है।
  • गाय के पीछे के पैरों के खुरों के दर्शन करने मात्र से अकाल मृत्यु टल जाती है। गाय की प्रदक्षिणा करने से चारों धाम के दर्शन लाभ प्राप्त होता है, क्योंकि गाय के पैरों को चार धाम रूप में विश्वास एवं मान्यताएँ है। जब हम किसी अत्यंत अनिवार्य कार्य से बाहर जा रहे हों और सामने गाय माता के दर्शन हो जाये तो इसे शुभ माना जाता है। और कार्य में सफलता की आशा की जाती है।
  • बच्चों को नजर लग जाने पर, गौमाता की पूंछ से बच्चों को झाड़े जाने से नजर उत्तर जाती है, इसका उदाहरण ग्रंथों में भी पढ़ने को मिलता है,  जब पूतना उद्धार में भगवान कृष्ण को नजर लग जाने पर गाय की पूंछ से नजर उतारी गई। गौ-मूत्र का पवन ग्रंथों में अथर्ववेद, चरकसहिंता, राजतिपटु, बाण भट्ट, अमृत सागर, भाव सागर, सश्रुतु संहिता में सुंदर वर्णन किया गया है। काली गाय का दूध त्रिदोष नाशक सर्वोत्तम है। रुसी वैज्ञानिक शिरोविच ने कहा था कि गाय का दूध में रेडियो विकिरण से रक्षा करने की सर्वाधिक शक्ति होती है।

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गौमाता

वर्तमान में गौमाता –

आज भी कई घरों में gau mata (गाय) की रोटी राखी जाती है। कई स्थानों पर संस्थाएं गौशाला बनाकर पुनीत कार्य कर रही है। साथ ही यांत्रिक कत्लखानों को बंद करने का आंदोलन, मांस निर्यात नीति का पुरजोर विरोध जो कि प्रशंसनीय कार्य है। उत्तरप्रदेश मुख्यमंत्री माननीय योगीजी भी गौभक्त है। वर्तमान सरकार भी गौशालाओ पर ध्यान दे रही है। बाबा रामदेव जी गौ सेवा के लिए काफ़ी जागरूक एवं प्रेरित कर रहे है।

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गौमाता के बारे में ऐतिहासिक बिंदु

वर्तमान में कुछ लोग जब तक गाय दूध देती है, तब तक तो रखते है। उसके बाद गौमाता को छोड़ देते है। जो गलत नीति है। क्योकि वास्तव में गौसेवा का समय तो यही होता है, जिसका पुन्य प्राप्त होता है। गाय का पालन हर घर में करना चाहिए। हमारे पूर्वज एवं महापुरुष गौरक्षा के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे देते थे। जिनमे वीर गोगाजी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इसी प्रकार महाभारत काल में विराट युद्ध गौरक्षा के लिए लड़ा गया। जिसमे कुंती पुत्र अर्जुन ने अकेले ही ऐसे योद्धाओ को हराया जो उस समय के अपराजित योद्धा थे ,जैसे भीष्म पितामह ,गुरु द्रोणाचार्य आदि अनेक।

एक बार विवेकानंदजी से पूछा गया की सर्वोत्तम दूध किस पशु का है ? तब उन्होंने कहा भैस का। तभी उन्हें कहा गया कि, आपके देश में तो गाय का महिमा मंडन होता है। तब उन्होंने कहा ”आपने पशु के दूध के बारे में पूछा है, इसलिए पशुओ में भैस का दूध बताया है। गाय पशु नही, (gau mata) गौमाता है। और गाय का दूध अमृत होता है।”

गौमाता

निष्कर्ष – अतः गौमाता का जितना महिमा मंडन किया जाये कम है। हमें गौसेवा को कार्य नहीं अपितु हमारा धर्म मानना चाहिए।साथ ही हमारी आमदनी का एक निशिचत भाग (सामर्थ्य एवं श्रद्धानुसार ) गौसेवा के लिए दान करना चाहिए। तथा लोगो को प्रेरित भी करना चाहिए। गौसेवा में किया गया दान सदा लाभदायक होता है। और हमारी आमदनी में गुणात्मक वृद्धि करता है। जय गौमाता। गौमाता के बारे में ऐतिहासिक बिंदु विस्तार से आगे वर्णित रहेंगे ….

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