Tuesday, April 30, 2024
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दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण

दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण

दोहा :
* देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु॥148॥
भावार्थ:-मंत्री ने देखकर ‘जयजीव’ कहकर दण्डवत्‌ प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले- सुमंत्र! कहो, राम कहाँ हैं ?॥148॥

चौपाई :

* भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे-॥1॥
* राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥
भावार्थ:-हे मेरे प्रेमी सखा! श्री राम की कुशल कहो। बताओ, श्री राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया॥2॥
* सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ॥3॥
भावार्थ:-शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे- सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर-करके राजा हृदय में सोच करते हैं॥3॥
* राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥4॥
भावार्थ:-(और कहते हैं-) मैंने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गए, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा ?॥4॥
दोहा :
* सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥149॥
भावार्थ:-हे सखा! श्री राम, जानकी और लक्ष्मण जहाँ हैं, मुझे भी वहीं पहुँचा दो। नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूँ कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं॥149॥
चौपाई :
* पुनि पुनि पूँछत मंत्रिहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ॥1॥
भावार्थ:-राजा बार-बार मंत्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्री राम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आँखों दिखा दो॥1॥
* सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा॥2॥
भावार्थ:-मंत्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले- महाराज! आप पंडित और ज्ञानी हैं। हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा की है॥2॥
* जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा॥
काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं॥3॥
भावार्थ:-जन्म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं॥3॥
* सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥
भावार्थ:-मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुःख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी (रक्षक)! आप विवेक विचारकर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए॥4॥
दोहा :
* प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर॥150॥
भावार्थ:-श्री रामजी का पहला निवास (मुकाम) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर पर। सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे॥150॥
चौपाई :
* केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥1॥
भावार्थ:-केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर (श्रृंगवेरपुर) में ही बिताई। दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध मँगवाया और उससे श्री राम-लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाए॥1॥
* राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाई चढ़े रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥2॥
भावार्थ:-तब श्री रामचन्द्रजी के सखा निषादराज ने नाव मँगवाई। पहले प्रिया सीताजी को उस पर चढ़ाकर फिर श्री रघुनाथजी चढ़े। फिर लक्ष्मणजी ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े॥2॥
* बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू॥3॥
भावार्थ:-मुझे व्याकुल देखकर श्री रामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले- हे तात! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना॥3॥
* करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥4॥
भावार्थ:-फिर पाँव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिंता न कीजिए। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा॥4॥
छन्द :
* तुम्हरें अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी॥
भावार्थ:-हे पिताजी! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊँगा। आज्ञा का भलीभाँति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशल पूर्वक फिर लौट आऊँगा। सब माताओं के पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके तुलसीदास कहते हैं- तुम वही प्रयत्न करना, जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें।
सोरठा :
* गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥
भावार्थ:-बार-बार चरण कमलों को पकड़कर गुरु वशिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें, जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें॥151॥
चौपाई :
* पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥1॥
भावार्थ:-हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है, जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें॥1॥
* कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥2॥
भावार्थ:-भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना, कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना॥2॥
* ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥3॥
भावार्थ:-और हे भाई! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपन को अंत तक निबाहना। हे तात! राजा (पिताजी) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी (किसी तरह भी) मेरा सोच न करें॥3॥
* लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लारिकाई॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे, किन्तु श्री रामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलाई (और कहा) हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहाँ न कहना॥4॥
दोहा :
* कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥
भावार्थ:-प्रणाम कर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, परन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गईं। उनकी वाणी रुक गई, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया॥152॥
चौपाई :
* तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥1॥
भावार्थ:-उसी समय श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंश तिलक श्री रामचन्द्रजी चल दिए और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा-खड़ा देखता रहा॥1॥
* मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥2॥
भावार्थ:-मैं अपने क्लेश को कैसे कहूँ, जो श्री रामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गई (वे चुप हो गए) और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश हो गए॥2॥
* सूत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥3॥
भावार्थ:-सारथी सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकु/ल हो गया। मानो मछली को माँजा व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो)॥3॥
* करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥4॥
भावार्थ:-सब रानियाँ विलाप करके रो रही हैं। उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाए? उस समय के विलाप को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया!॥4॥
दोहा :
* भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
भावार्थ:-राजा के रावले (रनिवास) में (रोने का) शोर सुनकर अयोध्या भर में बड़ा भारी कुहराम मच गया! (ऐसा जान पड़ता था) मानो पक्षियों के विशाल वन में रात के समय कठोर वज्र गिरा हो॥153॥
चौपाई :
* प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इंद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥1॥
भावार्थ:-राजा के प्राण कंठ में आ गए। मानो मणि के बिना साँप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो। इन्द्रियाँ सब बहुत ही विकल हो गईं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया हो॥1॥
* कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना॥
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥2॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुःखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं-॥2॥
* नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! आप मन में समझ कर विचार कीजिए कि श्री रामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है। अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार (खेने वाले) हैं। सब प्रियजन (कुटुम्बी और प्रजा) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है॥3॥
* धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥4॥
भावार्थ:-आप धीरज धरिएगा, तो सब पार पहुँच जाएँगे। नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा। हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजिएगा तो श्री राम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे॥4॥
दोहा :
* प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥
भावार्थ:-प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आँखें खोलकर देखा! मानो तड़पती हुई दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो॥154॥

Overview

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श्री राम-वाल्मीकि संवाद

चौपाई :
* धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥1॥
भावार्थ:-धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले- सुमंत्र! कहो, कृपालु श्री राम कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं? स्नेही राम कहाँ हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहाँ है?॥1॥
* बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥2॥
भावार्थ:-राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई॥2॥
* भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहिं न प्रेम पनु मोर निबाहा॥3॥
भावार्थ:-उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि श्री राम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूँगा, जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?॥3॥
* हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥
भावार्थ:-हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राण प्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवीर! हा पिता के चित्त रूपी चातक के हित करने वाले मेघ!॥4॥
दोहा :
* राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
भावार्थ:-राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए॥155॥
चौपाई :
* जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥
भावार्थ:-जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो श्री रामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और श्री राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया॥1॥
* सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिं बारा॥2॥
भावार्थ:-सब रानियाँ शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं। वे राजा के रूप, शील, बल और तेज का बखान कर-करके अनेकों प्रकार से विलाप कर रही हैं और बार-बार धरती पर गिर-गिर पड़ती हैं॥2॥
* बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥3॥
भावार्थ:-दास-दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगर निवासी घर-घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भंडार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गए?॥3॥
* गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥4॥
भावार्थ:-सब कैकेयी को गालियाँ देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्रों का (अंधा) कर दिया! इस प्रकार विलाप करते रात बीत गई। प्रातःकाल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आए॥4॥

सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखना

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Seeing the minister, he offered obeisance by saying ‘Jayeev’. On hearing this, the king got confused and said – Sumantra! Say, where is Rama?

The king took Sumantra to heart. As if the drowning man had some support. Sitting near the minister with affection, filling the eyes with water, the king asked –
Hey my lover friend! Say Shri Ram’s skillful. Tell, where are Shri Ram, Laxman and Janaki? Have you brought them back to the forest? On hearing this, the minister’s eyes filled with water.
Distraught with mourning, the king again asked – Tell the message of Sita, Ram and Lakshmana. Remembering the form, quality, modesty and nature of Shri Ramchandraji, the king thinks in the heart.
(And say-) I gave exile after hearing about being king, even after hearing that the son (Rama) who did not have joy and sadness, did not lose my life even after the separation of such son, then who will be a great sinner like me? ?
Hey friend! Where Shri Ram, Janaki and Laxman are, deliver me there too. Otherwise, I say in the true sense that my life now wants to go.
The king repeatedly asks the minister – tell the message of my favorite sons. Hey friend! Immediately you take the same measures that show me the eyes of Shri Ram, Lakshmana and Sita.
Minister Dhiraj Dharkar said with a soft voice- Maharaj! You are learned and learned. Hey, God! You are superior to the brave and good-tempered men. You have always served the society of sadhus.
Birth and death, enjoyment of happiness and sorrow, loss and gain, separation of love, all these masters! They are like night and day, subject to time and action.
People are happy in happiness and weep in sorrow, but cold-blooded men consider both of them in their mind. Hey everyone! Consider your patience and be patient and abandon mourning.
Sri Ramji’s first abode (Mukam) took place on the banks of Tamsa, the second on Gangatir. Both the brothers, including Sitaji, bathed that day and continued to drink water.
Kewat (Nishadraj) did much service. She spent the night at Singraur (Shringverpur). On the second day, as soon as dawn, we got the milk of the elder and from that Shri Ram-Lakshman made crowns of jata on his head.
Then Nishadraj, Sakha of Shri Ramchandraji, called for a boat. Priya first offered Sitaji to him and then Shri Raghunathji. Then Laxmanji decorated the bow and arrow and climbed himself after getting the permission of Lord Shri Ramchandraji.
Seeing me distraught, Shri Ramchandraji endured and said sweet words – O Tat! Say my salute to my father and hold his lotus feet on my behalf again and again.
Then, holding his feet and pleading, O father! Don’t worry about me With your grace, grace and virtue, we will be efficient in the forest and on the way.
Hey daddy By your grace, I will get all kinds of happiness while going to forest. After following the order well, I will return to see the steps efficiently. After solving the feet of all mothers and pleading with them, Tulsidas says – You should try the same, in which Kosalpati father should be efficient.
Repeatedly hold the step lotus and tell my message to Guru Vashistha that he should give the same sermon so that Avadhpati father should not think of me.
Hey Tat By requesting Nihora (request) from all the ancestors and family members, to tell my plea that the same person is beneficial to me in all respects, with whose efforts the Maharaj will be happy
On coming to Bharat, my message to them is to not give up the policy when you get the post of king, obey the people with deeds, words and mind and serve all mothers with equal knowledge.
And hey brother! Serving father, mother and relatives end brotherhood to the end. Hey Tat Keep the king (father) in such a way that they never (somehow) think of me.
Laxmanji uttered some harsh words, but Shri Ramji requested him again by refusing them and got his gift again and again (and said) O Tat! Don’t say Laxman’s boyhood there
Greeting, Sitaji also started saying something, but with affection, she became relaxed. His voice stopped, the eyes filled with water and the body was filled with excitement.
At the same time, Kewat, after getting the attitude of Shri Ramchandraji, drove the boat to cross. So In this way Raghuvansh Tilak Shri Ramchandraji walked and I kept standing and watching the thunderbolt on the chest.
Because How do I tell my affliction, who returned to live with this message from Shri Ramji! Saying this, the minister’s speech stopped (he became silent) and he became guilty of loss and thinking.
On hearing the words of the charioteer Sumantra, the king fell on the earth, his heart began to be jealous. He started to suffer, his mind became distraught with fierce fascination. It is as if the fish has spread its vigor (the first rainwater has taken place).
All queens are crying mournfully. How to describe that great disaster? Hearing the lament of that time, the grief felt sad and the endurance of patience ran away!
Hearing the noise of (crying) in the king’s Rawale (Ranivas), there was a huge panic across Ayodhya! (It seemed like) as if a hard thunderbolt fell in the vast forest of birds at night.
The king’s soul got into the throat. As if the snake has become distraught (deathly) without the gem. The senses all became very perplexed, as if the lotus forest had wilted in the pond without water.
Kausalji, seeing the king very sad, knew in his heart that now the sun of the sun had set. Then Shri Kausalya, mother of Shri Ramchandraji, endured in the heart and spoke the words favorable to time-
Hey Nath! Think in your mind that the disconnection of Shri Ram Chandra is a vast sea. Ayodhya is a ship and you are its Karnadhar (seer). All the loved ones (kutumbi and subjects) are the society of the passengers, which is boarded on this ship.
If you are patient, you will reach beyond. Otherwise, the whole family will be drowned. Because Oh, dear master! If I take my request in my heart, then Shri Ram, Lakshman, and Sita will come again.
Hearing the tender words of dear wife Kausalya, the king opened his eyes! As if some cold water is being sprinkled on a tortured deer.
With patience, the king sat up and said – Sumantra! Say, where is the compassionate Shri Rama? Where is Laxman? Where is Snehi Ram? And where is my sweet daughter-in-law Janaki?
The king is mourning in a variety of ways. That night became as big as the ages, not even passed. The king remembered the curse of the blind ascetic (Shravanakumar’s father). They told the story to Kausalya.
While describing that history, the king became distraught and said that the hope of living without Shri Rama is damned. So What will I do with the body that did not love my love?
Because My dear dear Rama who gives joy to Raghukul! Because  Many days passed without you living without me. SO Yes Janaki, Laxman! So Oh Raghuveer! Because  Z Yes, clouds in the interest of the father’s mind!
 Because My dear dear Rama who gives joy to Raghukul! So Many days passed without you living without me. So Yes Janaki, Laxman! Because Oh Raghuveer!So  Yes, clouds in the interest of the father’s mind!
So It was only Dasharathaji who lived and died, whose pure fame was covered in many universes. When you won, you saw the face like the moon of Shri Ram Chandraji, and made an improvement in your death by making the object of Shri Ram.
Because All the queens are crying mournful and weeping. She has been mourning in various ways, So repeatedly declaring the form, modesty, strength, and glory of the king.
So The slaves and maids are crying mournfully and the residents of the city are crying from house to house. So It is said that today the sun of the Suryakul, the storehouse of the limits, properties, and forms of religion, has set?
because Everyone abuses Kaikeyi, who blinded the whole world without eyes! Thus passed the night mourning. So In the morning, all the great learned sages came.
parmender yadav
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I am simple and honest person
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  1. […] भावार्थ:-तब वशिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया॥156॥ चौपाई : * तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥ धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥ भावार्थ:-वशिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा- तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से न कहना॥1॥ * एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥ सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥2॥ भावार्थ:-जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर धावन (दूत) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले॥2॥ * अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥ देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥3॥ भावार्थ:-जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों (अनेकों) तरह की बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे॥3॥ * बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥ मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥4॥ भावार्थ:-(अनिष्टशान्ति के लिए) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशल-क्षेम माँगते थे॥4॥ दोहा : * एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ। गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाई॥157॥ भावार्थ:-भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरुजी की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े।157॥ चौपाई : * चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥ हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥1॥ भावार्थ:-हवा के समान वेग वाले घोड़ों को हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लाँघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुँच जाऊँ॥1॥ * एक निमेष बरष सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥ असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥2॥ भावार्थ:-एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुँचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे हैं॥2॥ * खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥ श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥3॥ भावार्थ:-गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है॥3॥ * खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥ नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥4॥ भावार्थ:-श्री रामजी के वियोग रूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे हैं कि) देखे नहीं जाते। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों॥4॥ * पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवँहि जोहारहिं जाहिं। भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥ भावार्थ:-नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं, गौं से (चुपके से) जोहार (वंदना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है॥158॥ यह भी पढे  –   दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण […]

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