Saturday, April 27, 2024
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श्री राम-वाल्मीकि संवाद

श्री राम-वाल्मीकि संवाद

* देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥3॥
भावार्थ:-सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है॥3॥
* सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥4॥
भावार्थ:-सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरन्द रस में मस्त हुए भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥124॥
भावार्थ:-पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमल नयन श्री रामचन्द्रजी हर्षित हुए। रघु श्रेष्ठ श्री रामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकिजी उन्हें लेने के लिए आगे आए॥124॥
चौपाई :
* मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रम में ले आए॥1॥
* मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मँगाए॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥2॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकिजी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिए मधुर कंद, मूल और फल मँगवाए। श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और रामचन्द्रजी ने फलों को खाया। तब मुनि ने उनको (विश्राम करने के लिए) सुंदर स्थान बतला दिए॥2॥
* बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥3॥
भावार्थ:-(मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी) मंगल मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकिजी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथजी कमलसदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले-॥3॥
* तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥4॥
भावार्थ:-हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई॥4॥
दोहा :
* तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥125॥
भावार्थ:-(और कहा-) हे प्रभो! पिता की आज्ञा (का पालन), माता का हित और भरत जैसे (स्नेही एवं धर्मात्मा) भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुण्यों का प्रभाव है॥125॥
चौपाई :
* देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥
भावार्थ:-हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)। अब जहाँ आपकी आज्ञा हो और जहाँ कोई भी मुनि उद्वेग को प्राप्त न हो-॥1॥
* मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥2॥
भावार्थ:-क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है॥2॥
* अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥3॥
भावार्थ:-ऐसा हृदय में समझकर- वह स्थान बतलाइए जहाँ मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊँ और वहाँ सुंदर पत्तों और घास की कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय निवास करूँ॥3॥
* सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले- धन्य! धन्य! हे रघुकुल के ध्वजास्वरूप! आप ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन (रक्षण) करते हैं॥4॥
छन्द :
* श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥
भावार्थ:-हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी (आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले हैं, वही चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिए आप राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं।
सोरठा :
* राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।126॥
भावार्थ:-हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका ‘नेति-नेति’ कहकर वर्णन करते हैं॥126॥
चौपाई :
* जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥
भावार्थ:-हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है?॥1॥
* सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
भावार्थ:-वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं॥2॥
* चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥
भावार्थ:-आपकी देह चिदानन्दमय है (यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह विशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए (दिव्य) नर शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं॥3॥
* राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥
भावार्थ:-हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है, क्योंकि जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है।)॥4॥
दोहा :
* पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127॥
भावार्थ:-आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥127॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥
भावार्थ:-मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्री रामचन्द्रजी रहस्य खुल जाने के डर से सकुचाकर मन में मुस्कुराए। वाल्मीकिजी हँसकर फिर अमृत रस में डुबोई हुई मीठी वाणी बोले-॥1॥
* सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥2॥
भावार्थ:-हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से-॥2॥
* भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥3॥
भावार्थ:-निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं,॥3॥
* निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥4॥
भावार्थ:-तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य (रूपी मेघ) की एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं (अर्थात आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा सी भी झाँकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौंदर्य का तिरस्कार करते हैं), हे रघुनाथजी! उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिए॥4॥
दोहा :
* जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥128॥
भावार्थ:-आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुण समूह रूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी! आप उसके हृदय में बसिए॥128॥
चौपाई :
* प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥
भावार्थ:-जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं,॥1॥
* सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥2॥
भावार्थ:-जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य श्री रामचन्द्रजी (आप) के चरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं,॥2॥
* चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
भावार्थ:-तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार (परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं॥3॥
* तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥4॥
भावार्थ:-जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं,॥4॥
दोहा :
* सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥129॥
भावार्थ:-और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन लोगों के मन रूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित करने वाले आप दोनों बसिए॥129॥
चौपाई :
* काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥
भावार्थ:-जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए॥1॥
* सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥
भावार्थ:-जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,॥2॥
* तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥3॥
भावार्थ:-और आपको छोड़कर जिनके दूसरे कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके मन में बसिए। जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है,॥3॥
* जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥
भावार्थ:-जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं॥4॥
दोहा :
* स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥130॥
भावार्थ:-हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए॥130॥

Overview

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चौपाई :
* अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥
भावार्थ:-जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है॥1॥
* गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥2॥
भावार्थ:-जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और राम भक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए॥2॥
* जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥3॥
भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥3॥
* सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥4॥
भावार्थ:-स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए॥4॥
दोहा :
* जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131॥
भावार्थ:-जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है॥131॥
चौपाई :
* एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा- हे सूर्यकुल के स्वामी! सुनिए, अब मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवास स्थान बतलाता हूँ)॥1॥
* चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥2॥
भावार्थ:-आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है॥2॥
* नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥3॥
भावार्थ:-वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसुयाजी अपने तपोबल से लाई थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पाप रूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डायन) रूप है॥3॥
* अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥4॥
भावार्थ:-अत्रि आदि बहुत से श्रेष्ठ मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो योग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे रामजी! चलिए, सबके परिश्रम को सफल कीजिए और पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिए॥4॥

सफलता (successful)

decision making निर्णय लेने की क्षमता के अद्भभुद फायदें ।

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Shri Ram-Valmiki Dialogue
Seeing the beautiful forests, ponds and mountains, Lord Ramchandraji came to Valmiki’s ashram. Shri Ramchandraji saw that Muni’s residence is very beautiful, where there are beautiful mountains, forests and holy water.
Trees are blooming in the lotus and forests in the ponds, and the bunnies mashed in Makaranda juice are making beautiful humming. Many birds and animals are clamoring and wandering with a happy heart, devoid of hatred.
Kamal Nayan Shri Ramchandraji was delighted to see the holy and beautiful ashram. Hearing the arrival of Raghu Shrestha Shri Ramji, Muni Valmikiji came forward to take him.
Shri Ramchandraji worshiped the sage. Vipra Shrestha Muni blessed him. On seeing the image of Shri Ramchandraji, Muni’s eyes became cold. Respectfully munis brought them to the ashram.
The best sage Valmikiji found the beloved guests and asked for sweet tubers, origin and fruits for them. Shri Sitaji, Laxmanji and Ramchandraji ate the fruits. Then the sage told them (to rest) beautiful places.
(Muni is sitting near Shri Ramji and his) Valmikiji is enjoying a lot of happiness by seeing the Mangal idol with eyes. Then, Shri Raghunathji joined the hands of Kamalasuddha, and said the sweet words which give pleasure to the ears.
Hey Muninath! You are trikaldarshi. The whole world is like a plum on your palm. Lord Shree Ramachandraji narrated the story in detail, saying the way Rani Kaikeyi gave exile again.
(And said-) Oh God! The obedience of the father, the interest of the mother and the brother of (affectionate and righteous) brother like Bharat and then I see you, all this is the effect of my virtue.
Hey Muniraj! Today, all our virtues became successful by seeing your feet (we got the fruits of all virtues). Now where you have your orders and where no monk udveg is received –
Because monks and ascetics suffer from it, those kings are burnt without fire (from their evil deeds). Satisfaction of Brahmins is the root of all forests and the anger of Bhudev Brahmins consumes crores of clans.
Thinking this in your heart – tell me the place where I go with Lakshmana and Sita and make beautiful leaves and grass pits there, O kind! I stay for some time.
Hearing the simple speech of Shri Ramji, the learned sage Valmiki said – Blessed! Blessed! O flag of Raghukul! Why wouldn’t you say that? You always observe (protect) the dignity of the Vedas.
Hey Ram! You are the protector of the dignity of the Vedas, Jagadishwar and Mayankiji (your form Bhuta) Maya, who creates, maintains and destroys the world by finding your stance of grace. Sheshaji Lakshman, the lord of the pasture, who is the owner of snakes with a thousand heads and who holds the earth on his head. For the work of the gods, you have taken the body of the king and destroyed the army of evil demons.
Hey Ram! Your form is imperceptible of speech, beyond intelligence, latent, inexplicable and inexhaustible. The Vedas constantly describe it as ‘Neti-neti’.
Hey Ram! The world is visible, you are about to see it. You are also going to dance Brahma, Vishnu and Shankar. When they too do not know your heart, then who else is going to know you?
He only knows you, whom you give birth to, and knows that he becomes your form. Hey Raghunandan! O sandalwood that cools the hearts of devotees! By your grace devotees get to know you.
Your body is chidanandamay (it is not karmic bondage, trideha specific myik, made of naturalistic Panch mahabhutas) and is devoid of all vices (genesis-destruction, growth-decay etc.), this secret is known only by the possessive men. You have worn a (divine) male body for the work of deities and saints and say and do like Prakrit (a body made of elements of nature, ordinary) kings.
Hey Ram! The foolish people get fascinated by seeing and hearing your characters and the knowledgeable ones are happy. Whatever you say, all that is true (justified), because you must dance as much as you can.
You asked me where should I live? But I can ask you to state the place where you are not. Then I will show you the place to live.
Hearing the words written by the Muni’s Premaras, Shri Ramchandraji smiled in his mind for fear of revealing the secret. Valmikiji laughed and then dipped the sweet voice soaked in nectar juice.
O Lord Rama! Listen, now I tell you the place where you, along with Sitaji and Laxmanji, reside. Whose ears are like the sea from many beautiful rivers like your beautiful story.
He is constantly filling, but never full (His contented), His heart is a beautiful home for you, And those who have kept their eyes shattering, Who are always longing for your visible cloud.
And those who disrespect heavy rivers, oceans and lakes, and a drop of your beauty (cloudy) becomes happy with water (that is, the slightest, subtle, in front of a tableau of any part of one of your divine truthful images And the reason is to despise the beauty of the three worlds i.e. Earth, Heaven and Brahmalok), O Raghunathji! Reside in those heart-pleasing buildings with the help of brothers Lakshmanji and Sitaji.
In your fame as Nirmal Mansarovar, whose tongue remains a swine, you continue to devour the pearls of your quality, O Ramji! You dwell in his heart.
Whose nostrils receive (smell) the sacred and fragrant (Pushpadi) beautiful offerings of the Lord with constant reverence and those who offer food to you and wear robes as your offerings,
Whose foreheads bow with tenderness on seeing the gods, gurus and Brahmins, whose hands worship the feet of Shri Ramchandraji (you) every day, and whose heart trusts Shri Ramachandraji (you), not the other,
And whose feet go in the shrines of Shri Ramchandraji (you), O Ramji! You stay in their mind. Those who regularly chant your (Rama name form) Mantraraj and worship you with family (parikar).
Those who perform tarpan and havan in many ways and give food to the Brahmins by giving them a lot of donations, and those who know the Guru more (bigger) than you in the heart and respectfully serve them.
And by doing all these deeds, everyone asks for the only fruit that we should have love at the feet of Shri Ramchandraji, both of you settled in the temples of the hearts of those who enjoy Sitaji and Raghukul.
Those who have neither work, anger, item, pride and fascination, neither greed, nor anger, nor passion, nor malice, nor hypocrisy, conceit and illusion – O Raghuraj! May you live in their heart.
Those who are loved and loved by all, who have the same sorrow and joy and praise (brag) and abusive (condemnation), who think and speak truthful and dear words, and those who are awake are your refuge.
And except you who have no other speed (shelter), O Ramji! You settle in their mind. Those who know a foreigner like a mother who gives birth to a woman, and alien wealth which is heavier than poison.
Those who are happy to see other’s wealth and are especially sad to see other’s woes and O Ramji! Those whom you love like life, their hearts are auspicious buildings for you.
Hey Tat Whose masters, sakhas, fathers, mothers, and gurus are all you, in the temple of your mind, both of you brothers along with Sita should reside.
Those who take away the qualities of everyone except the demerits, suffer for the Brahmin and Go, the beautiful mind of those who have dignity in the world, in policy-mastery, is your home.
Whoever considers your qualities and doshas as yours, who trusts you in all ways and resides with Sita in the heart of the devotee whom Ram loves.
Caste, husband, wealth, religion, bravado, loving family, and a house that gives happiness, leaving everyone who holds you only in your heart, O Raghunathji! You stay in his heart.
Heaven, hell and salvation are equal in sight, because he sees you everywhere, wearing a bow and arrow, and who is your servant with karma, word and mind, O Ramji! You encamp in his heart.
Whoever does not need anything and whoever has a natural love for you, reside continuously in his mind, it is your own home.
In this way Muni Shrestha Valmikiji showed the house to Shri Ramchandraji. May Shri Ramji’s heart be liked by his loving words. Then the sage said – O lord of Suryakul! Listen, now I call this time a soothing ashram (I will tell you the place of residence).
If you live on Mount Chitrakoot, there is all kinds of facilities for you. It is a pleasant mountain and beautiful forest. It is a shrine for elephants, lions, deer and birds.
There is the holy river, which is praised by the Puranas, and which Anasuya, the wife of Atri Rishi, brought from his Tapobal. She is the stream of Gangaji, her Mandakini name. To eat all that sinful children is the form of a witch.
Many excellent sages reside there, who tighten the body by doing yoga, chanting and penance. O Lord Rama! Come, make everyone’s hard work successful and glorify even the best Chitrakoot mountain.
parmender yadav
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I am simple and honest person
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  1. […] मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम चौपाई : * अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला॥ राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू॥1॥ भावार्थ:-उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनंदित हुए॥1॥ * बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥ करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए॥2॥ भावार्थ:-फूलों की वर्षा करके देव समाज ने कहा- हे नाथ! आज (आपका दर्शन पाकर) हम सनाथ हो गए। फिर विनती करके उन्होंने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःखों के नाश का आश्वासन पाकर) हर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गए॥2॥ * चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए॥ आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा॥3॥ भावार्थ:-श्री रघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनि मंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया॥3॥ * मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं॥ सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं॥4॥ भावार्थ:-मुनिगण श्री रामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मणजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं॥4॥ दोहा : * जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद। करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद॥134॥ भावार्थ:-प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनि मंडली को विदा किया। (श्री रामचन्द्रजी के आ जाने से) वे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे॥134॥ चौपाई : * यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥ कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1॥ भावार्थ:-यह (श्री रामजी के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। वे दोनों में कंद, मूल, फल भर-भरकर चले, मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥1॥ * तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥ कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥2॥ भावार्थ:-उनमें से जो दोनों भाइयों को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी की सुंदरता कहते-सुनते सबने आकर श्री रघुनाथजी के दर्शन किए॥2॥ * करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥ चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥3॥ भावार्थ:-भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ के तहाँ मानो चित्र लिखे से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है॥3॥ * राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥ प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिंकर जोरी॥4॥ भावार्थ:-श्री रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्री रामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं-॥4॥ दोहा : * अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय। भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥135॥ भावार्थ:-हे नाथ! प्रभु (आप) के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए। हे कोसलराज! हमारे ही भाग्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है॥135॥ चौपाई : * धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा॥ धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी॥1॥ भावार्थ:-हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए॥1॥ * हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा॥ कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी॥2॥ भावार्थ:-हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहाँ सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा॥2॥ * हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई॥ बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा॥3॥ भावार्थ:-हम लोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो! यहाँ के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर्रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं॥3॥ * तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥4॥ भावार्थ:-हम वहाँ-वहाँ (उन-उन स्थानों में) आपको शिकार खिलाएँगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखाएँगे। हम कुटुम्ब समेत आपके सेवक हैं। हे नाथ! इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजिए॥4॥ दोहा : * बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन। बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥136॥ भावार्थ:-जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्री रामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं, जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है॥136॥ चौपाई : * रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा॥ राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे॥1॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया॥1॥ * बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए॥ एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई॥2॥ भावार्थ:-फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे॥2॥ * जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु॥ फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु बलित बर बेलि बिताना॥3॥ भावार्थ:-जब से श्री रघुनाथजी वन में आकर रहे तब से वन मंगलदायक हो गया। अनेक प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उन पर लिपटी हुई सुंदर बेलों के मंडप तने हैं॥3॥ * सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए॥ गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी॥4॥ भावार्थ:-वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं। मानो वे देवताओं के वन (नंदन वन) को छोड़कर आए हों। भौंरों की पंक्तियाँ बहुत ही सुंदर गुंजार करती हैं और सुख देने वाली शीतल, मंद, सुगंधित हवा चलती रहती है॥4॥ दोहा : * नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर। भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर॥137॥ भावार्थ:-नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देने वाली और चित्त को चुराने वाली तरह-तरह की बोलियाँ बोलते हैं॥137॥ चौपाई : * करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा॥ फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:-हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं। शिकार के लिए फिरते हुए श्री रामचन्द्रजी की छबि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनंदित होते हैं॥1॥ * बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि रामबनु सकल सिहाहीं॥ सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या॥2॥ भावार्थ:-जगत में जहाँ तक (जितने) देवताओं के वन हैं, सब श्री रामजी के वन को देखकर सिहाते हैं, गंगा, सरस्वती, सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य (पुण्यमयी) नदियाँ,॥2॥ * सब सर सिंधु नदीं नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना॥ उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू॥3॥ भावार्थ:-सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मंदाकिनी की बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मंदराचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं,॥3॥ * सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते॥ बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई॥4॥ भावार्थ:-और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विन्ध्याचल बड़ा आनंदित है, उसके मन में सुख समाता नहीं, क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है॥4॥ दोहा : * चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति॥138॥ भावार्थ:-चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की सभी जातियाँ पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं- देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं॥138॥ चौपाई : * नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी॥ परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी॥1॥ भावार्थ:-आँखों वाले जीव श्री रामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान की चरण रज का स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परम पद (मोक्ष) के अधिकारी हो गए॥1॥ * सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन॥ महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू॥2॥ भावार्थ:-वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुंदर, मंगलमय और अत्यन्त पवित्रों को भी पवित्र करने वाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कही जाए, जहाँ सुख के समुद्र श्री रामजी ने निवास किया है॥2॥ * पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई॥ कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन॥3॥ भावार्थ:-क्षीर सागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहाँ सीताजी, लक्ष्मणजी और श्री रामचन्द्रजी आकर रहे, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुख वाले जो लाख शेषजी हों तो वे भी नहीं कह सकते॥3॥ * सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं॥ सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी॥4॥ भावार्थ:-उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूँ। कहीं पोखरे का (क्षुद्र) कछुआ भी मंदराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्म से श्री रामचन्द्रजी की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥ दोहा : * छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु। करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु॥139॥ भावार्थ:-क्षण-क्षण पर श्री सीता-रामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयों, माता-पिता और घर की याद नहीं करते॥139॥ चौपाई : * राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी॥ छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोर कुमारी॥1॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं। क्षण-क्षण पर पति श्री रामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं, जैसे चकोर कुमारी (चकोरी) चन्द्रमा को देखकर !॥1॥ * नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी॥ सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा॥2॥ भावार्थ:-स्वामी का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती हैं, जैसे दिन में चकवी! सीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त है, इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है॥2॥ * परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा॥ सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर॥3॥ भावार्थ:-प्रियतम (श्री रामचन्द्रजी) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियाँ सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कंद-मूल-फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है॥3॥ * नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई॥ लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू॥4॥ भावार्थ:-स्वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और पत्तों की सेज) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देने वाली है। जिनके (कृपापूर्वक) देखने मात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं!॥4॥ दोहा : * सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु। रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु॥140॥ भावार्थ:-जिन श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्री रामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत की माता सीताजी के लिए यह (भोग-विलास का त्याग) कुछ भी आश्चर्य नहीं है॥140॥ चौपाई : * सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं॥ कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी॥1॥ भावार्थ:-सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्री रघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। भगवान प्राचीन कथाएँ और कहानियाँ कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा सीताजी अत्यन्त सुख मानकर सुनते हैं॥1॥ * जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥ सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥2॥ भावार्थ:-जब-जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रों में जल भर आता है। माता-पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके-॥2॥ * कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी॥ लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥3॥ भावार्थ:-कृपा के समुद्र प्रभु श्री रामचन्द्रजी दुःखी हो जाते हैं, किन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्री रामचन्द्रजी को दुःखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाहीं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है॥3॥ * प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु॥ लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता॥4॥ भावार्थ:-तब धीर, कृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिए चंदन रूप रघुकुल को आनंदित करने वाले श्री रामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएँ कहने लगते हैं, जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं॥4॥ दोहा : * रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत॥141॥ भावार्थ:-लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है॥141॥ चौपाई : * जोगवहिं प्रभुसिय लखनहि कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें॥ सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि॥1॥ भावार्थ:-प्रभु श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी सँभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी की (अथवा लक्ष्मणजी और सीताजी श्री रामचन्द्रजी की) ऐसी सेवा करते हैं, जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं॥1॥ * एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी॥ कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा॥2॥ भावार्थ:-पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं- मैंने श्री रामचन्द्रजी का सुंदर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमन्त्र अयोध्या में आए वह (कथा) सुनो॥2॥ * फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई॥ मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू॥3॥ भावार्थ:-प्रभु श्री रामचन्द्रजी को पहुँचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मंत्री (सुमंत्र) सहित देखा। मंत्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दुःख हुआ, वह कहा नहीं जाता॥3॥ * राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी॥ देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥4॥ भावार्थ:-(निषाद को अकेले आया देखकर) सुमंत्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। (रथ के) घोड़े दक्षिण दिशा की ओर (जिधर श्री रामचन्द्रजी गए थे) देख-देखकर हिनहिनाते हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों॥4॥ दोहा : * नहिं तृन चरहिं न पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि। ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि॥142॥ भावार्थ:-वे न तो घास चरते हैं, न पानी पीते हैं। केवल आँखों से जल बहा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गए॥142॥ चौपाई : * धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू॥ तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता॥1॥ भावार्थ:-तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा- हे सुमंत्रजी! अब विषाद को छोड़िए। आप पंडित और परमार्थ के जानने वाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिए॥1॥ * बिबिधि कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी॥ सोक सिथिल रथु सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी॥2॥ भावार्थ:-कोमल वाणी से भाँति-भाँति की कथाएँ कहकर निषाद ने जबर्दस्ती लाकर सुमंत्र को रथ पर बैठाया, परन्तु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गए कि रथ को हाँक नहीं सकते। उनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है॥2॥ * चरफराहिं मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥ अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें॥3॥ भावार्थ:-घोड़े तड़फड़ाते हैं और (ठीक) रास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिए गए हों। वे श्री रामचन्द्रजी के वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दुःख से व्याकुल हैं॥3॥ *जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही॥ बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भाँती॥4॥ भावार्थ:-जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरह दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे मणि के बिना साँप व्याकुल होता है॥4॥ यह भी पढे –  श्री राम-वाल्मीकि संवाद […]

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