Friday, April 26, 2024
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सुग्रीव-राम संवाद और सीताजी की खोज के लिए बंदरों का प्रस्थान

सुग्रीव-राम संवाद और सीताजी की खोज के लिए बंदरों का प्रस्थान

दोहा :
* हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ।
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥20॥
भावार्थ : तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात्‌ उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आए॥20॥
चौपाई :
* नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥
अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥
भावार्थ : श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है॥1॥
* बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा॥2॥
भावार्थ : हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर हूँ। स्त्री का नयन बाण जिसको नहीं लगा, जो भयंकर क्रोध रूपी अँधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधान्ध नहीं होता)॥2॥
* लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
भावार्थ : और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥
* तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई॥
अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥4॥
भावार्थ : तब श्री रघुनाथजी मुस्कुराकर बोले- हे भाई! तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो जिस उपाय से सीता की खबर मिले॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरूथ॥21॥
भावार्थ : इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि वानरों के यूथ (झुंड) आ गए। अनेक रंगों के वानरों के दल सब दिशाओं में दिखाई देने लगे॥21॥

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चौपाई :
* बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा॥
आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥1॥
भावार्थ : (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान्‌ मूर्ख है। सब वानर आ-आकर श्री रामजी के चरणों में मस्तक नवाते हैं और (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) श्रीमुख के दर्शन करके कृतार्थ होते हैं॥1॥
* अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं॥
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई॥2॥
भावार्थ : सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था जिससे श्री रामजी ने कुशल न पूछी हो, प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि श्री रघुनाथजी विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं (सारे रूपों और सब स्थानों में हैं)॥2॥
* ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई॥
राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ : आज्ञा पाकर सब जहाँ-तहाँ खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने सबको समझाकर कहा कि हे वानरों के समूहों! यह श्री रामचंद्रजी का कार्य है और मेरा निहोरा (अनुरोध) है, तुम चारों ओर जाओ॥3॥
* जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई॥
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ॥4॥
भावार्थ : और जाकर जानकीजी को खोजो। हे भाई! महीने भर में वापस आ जाना। जो (महीने भर की) अवधि बिताकर बिना पता लगाए ही लौट आएगा उसे मेरे द्वारा मरवाते ही बनेगा (अर्थात्‌ मुझे उसका वध करवाना ही पड़ेगा)॥4॥
दोहा :
* बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत।
तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत॥22॥
भावार्थ : सुग्रीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरंत जहाँ-तहाँ (भिन्न-भिन्न दिशाओं में) चल दिए। तब सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान्‌ आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया (और कहा-)॥22॥
चौपाई :
* सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥
भावार्थ : हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान्‌ और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना॥1॥
* मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥
भावार्थ : मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्रजी का कार्य संपन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने से) सेवन करना चाहिए, परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए॥2॥
* तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव सोका॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥3॥
भावार्थ : माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ। हे भाई! देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों (कामनाओं) को छोड़कर श्री रामजी का भजन ही किया जाए॥3॥
* सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥
भावार्थ : सद्गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो श्री रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले॥4॥
* पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
भावार्थ : सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्‌जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी॥5॥
* बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥
भावार्थ : (और कहा-) बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्‌जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले॥6॥
* जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥7॥
भावार्थ : यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं (नीति की मर्यादा रखने के लिए सीताजी का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानरों को भेज रहे हैं)॥7॥
दोहा :
* चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह॥23॥
भावार्थ : सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की कन्दराओं में खोजते हुए चले जा रहे हैं। मन श्री रामजी के कार्य में लवलीन है। शरीर तक का प्रेम (ममत्व) भूल गया है॥23॥
चौपाई :
* कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥1॥
भावार्थ : कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोज रहे हैं। कोई मुनि मिल जाता है तो पता पूछने के लिए उसे सब घेर लेते हैं॥1॥

श्री रामजी से हनुमानजी का मिलना और श्री राम-सुग्रीव की मित्रता

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Then Angad, along with the monkeys, and forward Shri Ramji’s younger brother Lakshmanji (ie, following them) Sugriva walked with joy and came to where Raghunathji was.
Sugriva said with folded hands at the feet of Shri Raghunathji – O Nath! I do not blame anything. Hey, God! Your illusion is very strong. When you have mercy, O Ram! That’s when it leaves.
Hey master! Gods, humans and sages are subject to all subjects. Then I am also a very ferocious monkey among Palmer animals and animals. Who did not think of a woman’s arrow, which keeps awake even in the dark night in the form of fierce anger (does not become angry).
And by the gallows of greed that did not strangulate you, O Raghunathji! That man is like you. These qualities are not obtained by means. By your grace, some people find them.
Then Mr. Raghunathji smiled and said – O brother! You are as sweet as Bharata. Now take heart and do the same measures through which you get the news of Sita.
Thus the conversation was taking place that youth (herds) of apes came. Teams of monkeys of many colors started appearing in all directions.
(Shiva says-) O Uma! I saw that army of apes. Whoever wants to count him is a great fool. All the apes come and go at the feet of Shri Ramji and they (beauty-madhuryanidhi) pay obeisance to Shrimukh.
There was not a single monkey in the army from whom Shri Ramji did not ask for skill, it is not a big deal for Prabhu, because Shri Raghunathji is cosmopolitan and omnipresent (in all forms and in all places).
After getting the orders, everyone stood up everywhere. Sugriva then explained to everyone and said, O groups of apes! This is the work of Shri Ramchandraji and my request is (Nihora), you go around.
Go and find Janaki ji. Hey brother! Come back in a month. Whoever returns after spending a period of a month (without knowing) will be made to die by me (ie, I will have to kill him).
On hearing the words of Sugriva, all the apes immediately went everywhere (in different directions). Then Sugriva called Angad, Nal, Hanuman etc. the head-warriors (and said-)
O Dheerbuddhi and clever Neel, Angad, Jambavan and Hanuman! All of you best warriors go to the south direction and ask everyone’s address to Sita.
Think of the same (to find out Sitaji) by mind, word and deed. Performing (successful) work of Shri Ramchandraji. The sun should be consumed from the back and the fire from the heart (from the front), but the service of the master should be done with deceit (mind, word, deed).
Except Maya (affection and attachment of subjects), one should consume the hereafter (Bhagavatseva form means for the attainment of the divine abode of God), so that all the mourning arising out of Bhava (birth and death) is eradicated. Hey brother! This is the result of wearing the body, except all the works (wishes), only the hymn of Shri Ramji should be done.
The one who recognizes virtues (Gunavana) and the elder is the one who is the lover of the feet of Shri Raghunathji. After asking for permission and then nodding at the feet and remembering Shri Raghunathji, everyone went away with joy.
After all, Pawansut Shri Hanumanji gave his head. Thinking of the work, the Lord called him to himself. He touched his head with his hand and knowing his servant gave him the ring of his hand.
(And said-) To explain Sita in many ways and come back soon after saying my strength and Virah (love). Hanumanji considered his birth to be successful and he kept Kripanidhan Prabhu in his heart and went away.
Although the Gods who protect the gods know everything, they are also protecting politics (sending monkeys wherever they are to find Sita ji to maintain the policy).
All the apes are going in search of forests, rivers, ponds, mountains and mountains in the temples. The mind is absorbed in the work of Shri Ramji. Even the love of the body (motherhood) is forgotten.
If you encounter a demon somewhere, then take his life in every single bite. Discovering the mountains and forests in many ways. If a monk is found, then all are surrounded by him to ask for the address.
parmender yadav
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I am simple and honest person
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